मेरा गाँव और खुशहाली

10वीं पास करने के बाद अपना गाँव छोड़ा था मैंने लेकिन आज 33 साल बाद भी गाँव की सारी यादें ताजा हैं. अभी भी गाँव मुझे खींचता है अपनी ओर और जब भी मौका मिलता है मैं पहुँच भी जाता हूँ. लोग डराते हैं कि गाँव में अब वह बात नहीं रही. राजनीति होने लगी है. अब वह प्यार भी नहीं है. सुनकर बहुत अजीब लगता है कि देश तरक्की कर रहा है और गाँव पिछड़ते जा रहे हैं.
मुझे याद है अपना बचपन. मेरी माई कई बार नमक, आटा, चीनी जैसी छोटी-छोटी जरूरत की चीजें किसी के घर से मंगवा लिया करतीं या दे दिया करतीं. फिर ये चीजें वापस करने की परम्परा भी थी. इसका सबसे बड़ा फायदा यह था कि आधी रात अगर कोई मेहमान आ भी गया और घर में कोई सामान नहीं है तो चिंता किसी को नहीं होती. आज शहरों में कोई सोच भी नहीं सकता इस सामाजिक समरसता के बारे में. यहाँ तो लोगों की शान में बट्टा लग जाएगा. घर में नमक नहीं है तो या तो लेने जाना पड़ेगा या फिर बिना नमक भोज करना होगा. शादी-विवाह या अन्य अवसरों पर बिस्तर, चारपाई गाँव और आसपास से आता. भोजन बनाने के बर्तन भी आसानी से मिल जाते. खाना बनाने के लिए किसी हलवाई की जरूरत नहीं पड़ती. वह केवल मिठाई बनाने आता. बाकी काम गाँव के लोग मिल जुलकर कर लेते. इससे दो फायदे होते. एक-काम के बदले किसी को एक पैसे देने नहीं पड़ते. दो-आपसी सद्भाव भी बना रहता. कार्यक्रम ख़त्म होने के बाद सामान लौटाने तक सब लोग एकजुट दिखते. किसी के निधन पर अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी खरीदी नहीं जाती थी. किसी के पेड़ से काट ली जाती. सूखी लकड़ियाँ लोग घरों से एकत्र कर लेते. मेरे अपने घर में लगभग पांच-छह चारपाई, गद्दे, चादर, रजाई सिर्फ गाँव के गरीब-गुरबों की मदद के लिए होते. उसे किसी भी सूरत में कोई घर में इस्तेमाल नहीं करता.
सुबह-सुबह जब हम सो रहे होते तभी चनई महरा आ जाते. वे पशुओं को चारा देते. दरवाजे की सफाई आदि करने के बाद खेत में चले जाते. अगर स्कूल नहीं है तो हमें भी ले जाते. दोपहर में घर आते. भोजन करते फिर विश्राम. शाम को फिर वही प्रक्रिया. रात का खाना वे अपने घर में खाते. जाते हुए माई उन्हें कुछ न कुछ देती जरूर थी. इस काम के बदले उन्हें खेत दिया गया था. उस खेत में वही-खाद बीज वे डालते जो हमारे खेत में पड़ता. लेकिन पूरा अनाज चनई महरा अपने घर ले जाते. हर महीने उन्हें कुछ पैसा भी घर की जरूरतों के लिए मिलता. मैंने अपने होश संभालने के बाद करीब 30 साल तक उन्हें अपने परिवार के बीच पाया. जब वे अस्वस्थ रहने लगे, तब उन्हें विश्राम करने की सलाह दी गई लेकिन वे रोज घर आते, खाते-पीते फिर जाते. और हाँ, अगर चनई महरा ने किसी भी तरह की शिकायत कर दी तो हमारी धुनाई तय थी. उनकी बात को अनसुना करने का हमारे पास कोई तरीका नहीं था. बहुत प्यार भी करते थे हमें.
भिखारी चाचा थे हमारे टेलर मास्टर. बचपन में हम उनके पास जाते. वे कपड़े सिलते. फिर हम लाते और पहनते. पैसे नहीं दिए जाते थे. पुरोहित, नाई, धोबी, दरजी सबका तय हिस्सा नई फसल में होता. उन्हें पूरी ईमानदारी से दिया जाता. इस तरह सीजन में उनके घरों में वैसे ही अनाज रहता जैसे हमारे घरों में. नगद रकम का आदान-प्रदान तब होता जब घर में कोई आयोजन होता. सत्यनारायण भगवान की कथा में भी पुरोहित जी, नाई, कहांर आदि को नगद-भोजन सब मिलता था. कहने का मतलब सामाजिक ताना-बाना कुछ ऐसा हमारे बुजुर्गों ने बुना था कि आपसी वैमनस्यता की तो कोई जगह थी ही नहीं. सब एक-दूसरे की मदद करते रहते और सबका जीवन सहज रहता. गाँव में कोठियां भले नहीं थी लेकिन लोगों का दिल किले-महल जैसा था. खपड़े के घर बहुतायत थे. छप्पर भी खूब होते हर छोटे-बड़े के दरवाजे पर. इसकी भी बड़ी रोचक कहानी थी. बारिश से पहले छप्पर को नया लुक दिया जाता. छप्पर जमीन पर ही बनाया जाता. शाम को पूरा गाँव एकत्र होता. छप्पर सही जगह पर पहुँचाने के बाद गुड बांटने की परंपरा थी. लोग खुश हो जाते थे. किसी को अपने कपड़े गंदे होने या फिर नहाने की चिंता नहीं होती. बच्चा पार्टी भी छप्पर में इसलिए हाथ लगाती थी कि उसे गुड मिलेगा. अब जब लोग कहते हैं कि गांवों में वो बात नहीं तो सहसा भरोसा नहीं होता लेकिन वे वहीँ रहकर महसूस कर रहे हैं. निश्चित तौर पर कमी आई होगी तभी तो लोग कह रहे हैं कि गांवों में अब वो बात कहाँ. लेकिन मैं तो फिर भी कहूँगा कि कोई लौटा दे बचपन के वो दिन और गाँव की आपसी मिठास. खुशहाली वापस आ जाएगी. इस खुशहाली किसकी पर नजर लगी है चर्चा अगली कड़ी में. मैं तो गाँव की मिठास को मिस करता हूँ और आप .... 

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